भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण लगातार आठवीं बार बजट पेश करने की तैयारी कर रही हैं, वहीं आम आदमी बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और घटती खपत के बीच कुछ राहत की उम्मीद लगा रहा है.
अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ने के कारण निवेशकों में घबराहट है और इसने रोज़गार के अवसरों को भी कम किया है.
जबकि महंगाई के हिसाब से मज़दूरी और वेतन में बढ़ोतरी नहीं होने से ख़ासकर सीमित आमदनी वाले परिवारों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
महंगाई

खाद्य वस्तुओं, ख़ासकर सब्ज़ियों, खाद्य तेलों और दूध की क़ीमतें बढ़ने से रसोई पर होने वाले घरेलू खर्च में बढ़ोतरी हुई है. ख़राब मौसम के कारण सब्ज़ियों की आपूर्ति प्रभावित हुई और क़ीमतें बढ़ीं.
खाद्य तेलों की क़ीमतों में वृद्धि का कारण था आयात शुल्क का बढ़ाया जाना. जबकि लागत में वृद्धि का हवाला देते हुए दूध की क़ीमतें बढ़ीं. हालांकि 25 जनवरी को सबसे बड़ी डेयरियों में से एक अमूल ने एक लीटर के पैकेट पर एक रुपये की कटौती कर कुछ राहत दी है.
जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर अरुण कुमार ने बीबीसी हिंदी से कहा, “अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अनिश्चितता बहुत बढ़ गई है. वह इनडायरेक्ट टैक्स कम करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन इससे घरेलू उद्योग प्रभावित होंगे. जबकि ट्रंप टैरिफ़ लगा देते हैं तो महंगाई और बढ़ जाएगी.”
अरुण कुमार कहते हैं, “सबसे पहले घरेलू स्तर पर चीज़ों को दुरुस्त करने की ज़रूरत है, महंगाई उनमें से एक है.”
आर्थिक स्लो डाउन

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राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय का अनुमान है कि 2024-24 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 6.4% रहेगी. महामारी के दौरान आई गिरावट के बाद से यह सबसे कम ग्रोथ रेट है.
हालांकि 2024 के चुनावी वर्ष में आधारभूत ढांचे पर पूंजीगत ख़र्च में कमी को स्लोडाउन का एक कारण माना जा रहा है.
आधारभूत ढांचे की परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर सीमेंट, स्टील और मशीनरी का इस्तेमाल होता है जिससे उन उद्योगों में तेज़ी आती है और मैन्युफ़ैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में नौकरियों के मौके बनते हैं.
इसीलिए अर्थशास्त्रियों का कहना है कि विकास दर और रोज़गार सृजन के लिए पूंजीगत खर्च (कैपिटल एक्सपेंडिचर) को बढ़ाना ज़रूरी है.
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “मांग में कमी आने का एक पहलू ग़ैरबराबरी का बढ़ना भी है. असंगठित क्षेत्र में 94 प्रतिशत कामकाजी लोग हैं. वहां वेतन और महंगाई की मार से मांग के कम होने का असर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार पर पड़ता है.”
अरुण कुमार के अनुसार, असगंठित क्षेत्र में रोज़गार सृजन का दारोमदार आधारभूत ढांचे पर पूंजीगत खर्च के बढ़ाने पर है और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए इसे बढ़ाने की ज़रूरत है.
नौकरियों के घटते मौके

पिछली कुछ तिमाहियों से रोज़गार सृजन की रफ़्तार धीमी रही है और सरकार से इस ओर कुछ ठोस उपायों की घोषणा की उम्मीद की जा रही है.
कोविड के दौरान कृषि में लगे लोगों की संख्या में अचानक तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि करोड़ों प्रवासी मज़दूर अपने घरों को लौट गए थे.
जो कामगार शहरों को छोड़ अपने घरों को लौटे थे, उनकी पूरी तरह वापसी नहीं हो पाई है उसकी वजह नौकरियों की किल्लत और शहरों में जीवन यापन का बेतहाशा महंगा होना है.
हालांकि सरकारी आंकड़ों में संगठित क्षेत्र में रोज़गार में सुधार के संकेत मिलते हैं, लेकिन असंगठित क्षेत्र में रोज़गार सृजन में अभी भी काफ़ी गैप दिखाई देता है.
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इसके साथ ही मझौले, माइक्रो और छोटे उद्योगों के लिए सरकारी मदद बढ़ाने जैसे अन्य उपाय करने होंगे.
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “पिछले साल तक सरकार का रवैया असंगठित क्षेत्रों को संगठित बनाने का था, जोकि असंभव है. मसलन कृषि में 85 प्रतिशत खेत पांच एकड़ से कम वाले हैं, इसी तरह जो माइक्रो सेक्टर है, उसमें एमएसएमई का 97.5 प्रतिशत रोज़गार है. इन्हें संगठित नहीं बनाया जा सकता.”
वह कहते हैं, “सरकार ने पिछले बजट में जो घोषणाएं की थीं, वो संगठित क्षेत्र लिए थीं. जो बड़े उद्योग हैं, वे उतना रोज़गार नहीं पैदा करते जितना कृषि और एमएसएमई सेक्टर. इसलिए यहां सरकार को कुछ ठोस घोषणाएं करनी चाहिए. रोज़गार सृजन का फोकस असंगठित क्षेत्र होना चाहिए.”
वेतन में धीमी वृद्धि

उपभोग में कमी की वजह मज़दूरों और मध्यम आय वाली नौकरियों में वेतन वृद्धि की धीमी रफ़्तार को भी माना जा रहा है.
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं कि हाल के कुछ तिमाहियों में मज़दूरी और वेतन में बहुत मामूली या नहीं के बराबर वृद्धि देखने को मिली है.
वो कहते हैं, “कार्पोरेट मुनाफ़े में वृद्धि के बावजूद महंगाई के अनुपात में वेतन नहीं बढ़े हैं. अर्थव्यवस्था में वेतन का हिस्सा कम हो रहा है और कॉर्पोरेट के मुनाफ़े का हिस्सा बढ़ रहा है.”
यह बात कुछ उद्योगों की रिपोर्टों में भी दिखाई देती है. ब्रिटानिया की दूसरी तिमाही के नतीजों में बताया गया है कि दिहाड़ी मज़दूरों की आमदनी पिछले 12 महीनों में 3.4 फ़ीसदी बढ़ी जबकि इसी दौरान वेतन पाने वाले वर्करों की सैलरी में 6.5 फ़ीसदी का इजाफ़ा हुआ.
कुछ ऐसी ही तस्वीर उद्योग संगठन फिक्की और स्टाफ़िंग सॉल्यूशन कंपनी क्वेस कॉर्प की पड़ताल में सामने आई है. इनके अनुसार, 2019 से 2023 के बीच इंजीनियरिंग, मैन्यूफ़ैक्चरिंग, प्रॉसेस और इनफ़्रास्ट्रक्चर कंपनियों में वेतन में मिश्रित वृद्धि 0.8 फ़ीसदी देखी गई, जबकि एफ़एमसीजी कंपनियों में वेतन वृद्धि 5.4 फ़ीसदी थी.
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार का कहना है कि ‘असंगठित क्षेत्र में छोटे और लघु उद्योगों को बढ़ावा देंगे तो रोज़गार का बड़े पैमाने पर सृजन होगा और तब वेतन भी बढ़ना शुरू होगा.’
इनकम टैक्स

आम आदमी के लिए सबसे पीड़ादायक टैक्स का बोझ है. हालांकि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे टैक्स का फ़ैसला समय-समय पर जीएसटी काउंसिल में लिया जाता है. लेकिन बजट में इनकम टैक्स पर सरकार फ़ैसला लेती है. खाद्य तेलों जैसी आवश्यक वस्तुओं और पेट्रोलियम पदार्थों पर आयात शुल्क पर भी फैसला लिया जाता है.
और सरकार से उम्मीद की जाती है कि वो इन शुल्कों को और तर्कसंगत बनाकर आम लोगों को कुछ राहत दे.
हालांकि मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग की ओर से आयकर को कम करके बड़ी राहत देने की मांग ज़ोर पकड़ती जा रही है.
दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने खुद मध्य वर्ग के लिए टैक्स का बोझ कम किए जाने की मांग की है, और आयकर में 10 लाख रुपये तक की छूट की मांग की है.
हालांकि प्रो. अरुण कुमार ने कहा, “इनकम टैक्स छूट में बहुत कुछ उम्मीद नहीं है क्योंकि इससे डायरेक्ट टैक्स पर जो असर पड़ेगा वह वित्तीय घाटे को बढ़ाएगा. इनडायरेक्ट टैक्स (अप्रत्यक्ष कर) घटाने का ट्रंप का दबाव पहले ही वित्तीय घाटे की ओर ले जाने वाला है.”
वो कहते हैं कि सरकार ने 2019 में कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती कर दी थी जिससे राजस्व में 1.6 लाख करोड़ रुपये कम हो गया, “संगठित क्षेत्र के पास बहुत पैसा है और वो निवेश कर सकता है. ज़रूरत है छोटे और मझोले उद्योगों की मदद करने की.”