कैश कांड से चर्चा में आए जस्टिस यशवंत वर्मा कौन हैं और जानिए उनके पांच अहम फ़ैसले

जस्टिस यशवंत वर्मा. बीते कुछ समय से यह नाम सुर्खियों में बना हुआ है. उन पर आरोप है कि नई दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास से भारी मात्रा में कैश मिला है.

14 मार्च को दिल्ली हाई कोर्ट के जज के आवास के एक स्टोर रूम में आग लगी थी, जहाँ पर कथित तौर पर उनके घर से बड़ी मात्रा में कैश मिला था.

वहीं, जस्टिस यशवंत वर्मा का दावा है कि स्टोर रूम में उन्होंने या उनके परिवार वालों ने कभी कैश नहीं रखा, और उनके ख़िलाफ़ साज़िश रची जा रही है.

सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस संजीव खन्ना ने मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमिटी बनाई है. साथ ही यह फ़ैसला लिया है कि जस्टिस यशवंत वर्मा को कुछ समय तक कोई न्यायिक ज़िम्मेदारी न सौंपी जाए.

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने प्रस्ताव दिया है कि जस्टिस वर्मा को दिल्ली से हटाकर वापस इलाहाबाद हाई कोर्ट भेज दिया जाए. हालांकि, इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने फैसले पर आपत्ति जताई है.

जस्टिस यशवंत वर्मा के करियर से जुड़ा ग्राफ़िक्स

जस्टिस यशवंत वर्मा: वकील से जज बनने तक

6 जनवरी 1969 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में जन्मे जस्टिस यशवंत वर्मा तीस साल से भी ज़्यादा लंबे समय से क़ानूनी पेशे से जुड़े हुए हैं.

जस्टिस वर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से बी.कॉम (ऑनर्स) की डिग्री ली. इसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश की रीवा यूनिवर्सिटी से क़ानून (एलएलबी) की पढ़ाई की और 8 अगस्त 1992 में बतौर वकील करियर की शुरुआत की.

इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकील रहते हुए उन्होंने संवैधानिक, श्रम और औद्योगिक मामले, कॉर्पोरेट क़ानूनों, कराधान (टैक्सेशन) और क़ानून से जुड़े मामलों के मुक़दमे लड़े.

13 अक्तूबर 2014 को जस्टिस यशवंत वर्मा इलाहाबाद हाई कोर्ट में एडिनशल जज के रूप में जुड़े. लगभग डेढ़ साल बाद एक फ़रवरी 2016 को उन्होंने स्थायी जज के पद की शपथ ली.

हाई कोर्ट में जज के रूप में अपने सात साल के कार्यकाल में जस्टिस वर्मा ने संवैधानिक कानून, कराधान, मध्यस्थता और आपराधिक मामलों सहित कई मामलों में अध्यक्षता की.

साल 2006 से लेकर अक्तूबर 2014 में एडिशनल जज बनने से पहले तक जस्टिस वर्मा इलाहाबाद हाई कोर्ट में विशेष अधिवक्ता थे. इस बीच उन्होंने 2012 से अगस्त 2013 तक हाई कोर्ट में उत्तर प्रदेश के मुख्य स्थायी अधिवक्ता का पद संभाला था.

इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज बनने के सात साल बाद 11 अक्तूबर 2021 को उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट के जज के रूप में शपथ ली.

जस्टिस वर्मा दिल्ली हाई कोर्ट में वरिष्ठता के क्रम में चीफ़ जस्टिस के बाद दूसरे सीनियर जज थे. अगर वह वापस इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज बनते हैं तो यहां पर जस्टिस वर्मा चीफ़ जस्टिस के बाद वरिष्ठता के क्रम में नौवें नंबर पर होंगे.

 

डॉक्टर कफ़ील ख़ान
कफ़ील ख़ान गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर थे.

जस्टिस वर्मा के अहम फ़ैसले

जस्टिस यशवंत वर्मा इलाहाबाद और दिल्ली हाई कोर्ट में पिछले लगभग 11 साल से जज के रूप में काम कर रहे हैं. इस दौरान उन्होंने कई अहम मामलों की सुनवाई की और फ़ैसले दिए.

डॉ. कफ़ील ख़ान को जमानत: साल 2018 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान जस्टिस यशवंत वर्मा ने डॉ. कफ़ील ख़ान को जमानत दी थी.

अगस्त, 2017 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में कथित तौर पर ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित होने के कारण 60 बच्चों की मौत हो गई थी. मामले में डॉ. कफ़ील ख़ान पर चिकित्सीय लापरवाही का आरोप लगा था और उन्हें सात महीने तक हिरासत में रहना पड़ा था.

तब जस्टिस वर्मा ने डॉ. ख़ान को ज़मानत देते हुए कहा था, “ऑन रिकॉर्ड ऐसी कोई सामग्री नहीं मिली है जिससे यह बात साबित हो सके कि याचिकाकर्ता (कफ़ील ख़ान) ने चिकित्सीय लापरवाही की है.”

उनके इस फ़ैसले ने चिकित्सीय जवाबदेही, सरकारी लापरवाही और मानवाधिकारों के मुद्दों पर लोगों का ध्यान खींचा था.

कांग्रेस की याचिका ख़ारिज: पिछले साल मार्च में कांग्रेस पार्टी ने इनकम टैक्स को लेकर एक याचिका दायर की थी. दरअसल, कांग्रेस पार्टी को इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने 13 फरवरी 2024 को 100 करोड़ से ज़्यादा बकाया टैक्स की वसूली के लिए नोटिस भेजा था.

आयकर विभाग ने कांग्रेस पर 210 करोड़ का जुर्माना लगाया था और कांग्रेस पार्टी का दावा था कि उसके बैंक खाते फ्रीज़ कर दिए गए. इस कार्रवाई के ख़िलाफ़ कांग्रेस नेता और वकील विवेक तन्खा ने इनकम टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल में याचिका लगाई थी लेकिन इसे ख़ारिज कर दिया गया.

इसके बाद कांग्रेस ने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. मामले की सुनवाई जस्टिस यशवंत वर्मा और जस्टिस पुरूषेन्द्र कुमार कौरव की बैंच ने की. हाई कोर्ट ने कांग्रेस की याचिका ख़ारिज करते हुए इनकम टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल के आदेश को बरकार रखा.

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की शक्तियां: जनवरी 2023 में जस्टिस वर्मा की सिंगल बेंच ने फ़ैसला सुनाया कि ईडी मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम (पीएमएलए) के तहत मनी लॉन्ड्रिंग के अलावा किसी दूसरे अपराध की जांच नहीं कर सकती है. जांच एजेंसी खुद से यह नहीं मान सकती कि कोई अपराध किया गया है.

24 जनवरी, 2023 को दिए गए फ़ैसले में जस्टिस वर्मा ने कहा, “पूर्व निर्धारित अपराध की जांच और सुनवाई आवश्यक रूप से उस संबंध में क़ानून द्वारा सशक्त अधिकारियों द्वारा की जानी चाहिए.”

इस फै़सले से ईडी के अधिकारों संबंधी सीमाओं पर स्पष्टता आई और इसे जांच शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने की कोशिश के तौर पर देखा गया.

दिल्ली आबकारी नीति मामले की मीडिया रिपोर्टिंग: नवंबर, 2022 में दिल्ली के कथित शराब घोटाले में जस्टिस वर्मा आम आदमी पार्टी नेता और शराब नीति मामले में अभियुक्त विजय नायर की याचिका से संबंधित सुनवाई कर रहे थे.

इस दौरान उन्होंने कथित ग़लत रिपोर्टिंग के लिए कुछ न्यूज़ चैनलों से जवाब मांगा था.

अपनी याचिका में नायर ने अदालत को बताया था कि न्यूज़ चैनलों ने जांच एजेंसियों की संवेदनशील जानकारी सार्वजनिक डोमेन में लीक कर दी गई थी.

इसके बाद अदालत ने न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन (एनबीडीए) से कहा कि वह अपने सदस्य मीडिया कंपनियों को बुलाकर लीक हुई जानकारी और इसी तरह की अन्य जानकारी के स्रोतों के बारे में पूछताछ करे.

रेस्तरां बिल पर सर्विस चार्ज: जुलाई, 2022 में जस्टिस वर्मा ने केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (सीसीपीए) के दिशा-निर्देशों पर रोक लगा दी थी. इन दिशा-निर्देशों में कहा गया था कि रेस्तरां और होटल को बिल पर अपने ढंग से सर्विस चार्ज नहीं जोड़ना चाहिए और किसी अन्य नाम से सर्विस चार्ज नहीं वसूला जाना चाहिए.

जस्टिस वर्मा नेशनल रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया और फे़डरेशन ऑफ़ होटल एंड रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया (एफ़एचआऱ) की इन निर्देशों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे थे.

जस्टिस वर्मा का कहना था कि इस तरह के सर्विस चार्ज को मेनू में प्रमुखता से दिखाया जाना चाहिए.

उन्होंने आदेश दिया, “याचिकाकर्ता एसोसिएशन के सदस्यों को यह सुनिश्चित करना होगा कि क़ीमत और टैक्स के अतिरिक्त प्रस्तावित सर्विस चार्ज लगाया जाए. ग्राहकों को उसका भुगतान करने के दायित्व को मेनू या दूसरी जगहों पर उचित रूप से और प्रमुखता से दिखाया जाए.”

हालांकि, सितंबर 2023 में जस्टिस प्रतिभा सिंह ने इस आदेश को पलट दिया और “सर्विस चार्ज” शब्द को “स्टाफ़ कॉन्ट्रिब्यूशन” से बदल दिया, साथ ही कहा कि ऐसा कॉन्ट्रिब्यूशन पूरे बिल के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता है.

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