एक नए अध्ययन के अनुसार, भारत दुनिया का वैसा देश है, जहाँ सबसे ज़्यादा बाघ हैं.
यह तब संभव हो पाया है, जब भारत में लोगों की सबसे घनी आबादी है और दुनिया भर में बाघ के लिए जितना इलाक़ा है, भारत के पास उसका महज 18 फ़ीसदी ही है.
दिलचस्प है कि महज एक दशक में बाघों की संख्या दोगुनी होकर 3,600 से अधिक हो गई है. यह संख्या दुनिया भर के बाघों की तीन चौथाई है. ये बाघ 1,38,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पाए जाते हैं और इसके आसपास छह करोड़ लोग रहते हैं.
इंसान और जंगली जानवरों के बीच संघर्ष कम हुए हैं और स्थानीय समुदायों की स्थिति में सुधार हुआ है.
इस अध्ययन के मुख्य लेखक यादवेंद्र देव विक्रम सिंह झाला ने बीबीसी से कहा, “हम सोचते हैं कि बाघ जैसे बड़े जानवरों के संरक्षण के लिए इंसानों की आबादी घातक है. लेकिन इससे ज़्यादा लोगों का रवैया इस मामले में मायने रखता है.”
वह मलेशिया का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि आर्थिक रूप से संपन्न होने और भारत के मुक़ाबले कम घनी आबादी होने के बावजूद वहां बाघों की संख्या को सफलतापूर्वक नहीं बढ़ाया जा सका.
भारत में बाघों की आबादी बढ़ना दिखाता है कि कैसे संरक्षण अभियान बाघों को बचा सकता है, जैविक विविधता को बढ़ा सकता है और समुदायों को संबल दे सकता है.
शोधकर्ताओं का मानना है कि दुनिया के लिए ये अहम सबक हैं.
दुनिया के लिए मायने

भारत में 2006 से 2018 के बीच बाघों की संख्या को लेकर झाला, निनाद अविनाश मुंगी, राजेश गोपाल और क़मर क़ुरैशी ने अध्ययन किया.
साल 2006 से ही भारत अपने 20 राज्यों में हर चार साल पर बाघों की गिनती करता आया है. इसके अलावा इनकी संख्या के वितरण, इनके शिकार, इनके प्रतिद्वंद्वी जानवर और इनके निवास स्थान की गुणवत्ता का भी सर्वेक्षण किया जाता है.
इस दरम्यान भारत के बाघों के निवास स्थान की वृद्धि दर 30 प्रतिशत पाई गई, जो कि सालाना 2,929 वर्ग किलोमीटर है.
हालांकि देश में बाघों की संख्या संरक्षित इलाक़ों में बढ़ी है, जहाँ शिकार बहुतायत में मिलते हैं. लेकिन साथ ही उन्होंने इन इलाक़ों में रह रहे छह करोड़ लोगों के साथ ख़ुद को अनुकूलित किया है. टाइगर रिज़र्व और नेशनल पार्कों के बाहर बस्तियां हैं और मुख्यतः कृषि समुदाय हैं.
शोधकर्ताओं ने पाया कि पूरे भारत में बाघों के साथ सहअस्तित्व का स्तर अलग-अलग है, जो आर्थिक, सामाजिक धारणाओं और सांस्कृतिक कारकों पर निर्भर है.
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों में बाघ उन इलाक़ों में रहते हैं, जहाँ इंसानी आबादी अधिक है.
लेकिन शिकार के अतीत वाले इलाक़े जैसे ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड और पूर्वोत्तर भारत में बाघ या तो नहीं पाए जाते हैं या विलुप्त हो गए हैं. ये इलाक़े भारत के सबसे ग़रीब ज़िलों में गिने जाते हैं.
दूसरे शब्दों में, शोधकर्ताओं ने पाया कि इंसानों के साथ बाघों का सहअस्तित्व आम तौर पर आर्थिक रूप से संपन्न इलाक़ों में पाया जाता है, जिनको बाघ से जुड़े टूरिजम का लाभ मिलता है और जानवर-इंसान संघर्ष में नुकसान पर सरकार से मुआवज़ा मिलता है.
लेकिन झाला कहते हैं, यह प्रगति ‘दोधारी तलवार’ साबित हो सकती है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि पारिस्थितिकी तंत्र के टिकाऊ इस्तेमाल के माध्यम से आई आर्थिक संपन्नता बाघों की संख्या बढ़ने में मदद करती है. हालांकि इससे अक्सर लैंड यूज़ (भूमि उपयोग) के बदलाव से बाघों के निवास स्थान को नुकसान भी पहुंचता है.
शोधकर्ताओं के अनुसार, “इस तरह व्यापक शहरीकरण और ग़रीबी के कारण बाघों की वृद्धि बाधित होती है.”
“इसलिए बड़े पैमाने पर भूमि उपयोग को बदलने की जगह समावेशी और टिकाऊ ग्रामीण संपन्नता आधारित अर्थव्यवस्था अपनाने से बाघों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है.”
शोधकर्ताओं ने पाया कि हथियारबंद संघर्ष भी बाघों के विलुप्त होने का ख़तरा बढ़ाते हैं.
हथियारबंद संघर्ष वाले इलाक़े में बाघ नहीं, ऐसा क्यों

वैश्विक रूप से राजनीतिक अस्थिरता, जंगली जीवों में भारी कमी का सबब बना है, क्योंकि चरमपंथी अपनी फ़ंडिंग के लिए वन्य जीवन का दोहन करते हैं और इसे ऐसे अराजक इलाक़े में तब्दील कर देते हैं, जहां शिकारियों को खुली छूट मिल जाती है.
उदाहरण के लिए भारत में हथियारबंद संघर्षों के कारण मानस नेशनल पार्क ने गैंडों को खो दिया. नेपाल में भी गृह युद्ध के दौरान गैंडों की संख्या काफ़ी कम हुई थी.
शोधकर्ताओं ने पाया कि भारत के माओवादी संघर्ष से प्रभावित इलाक़ों में बाघ विलुप्त हो गए. ख़ासकर छत्तीसगढ़ और झारखंड के टाइगर रिज़र्व में.
उन रिज़र्वों में जहां हथियारबंद संघर्षों पर काबू पाया गया, जैसे नागार्जुनसागर-श्रीसैलाम, आमराबाद और सिमिलीपाल, यहाँ बाघों की संख्या बढ़ी है.
शोधकर्ताओं के अनुसार, इसके अलावा ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पूर्वी महाराष्ट्र जैसे कई इलाक़ों में भी हथियारबंद संघर्ष रहे, जिससे वहां बाघों की संख्या कम हुई और वहां विलुप्त होने का ख़तरा बढ़ा.
उनका कहना है, “राजनीतिक स्थिरता में सुधार के साथ, इन इलाक़ों में बाघों की संख्या में सुधार देखा गया.”
भारत में बाघ मुक्त इलाक़ा 1,57,000 वर्ग किलोमीटर है, जो छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में आता है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि बाघों को फिर से लाने और संरक्षित क्षेत्रों में आवास कनेक्टिविटी बढ़ाने से इन क्षेत्रों में लगभग 10,000 वर्ग किमी को बाघों की रिहाइश का इलाक़ा बनाया जा सकता है.
उनका कहना है कि घनी आबादी और ग़रीबी वाले इलाक़ों में बड़े मांसाहारी जानवरों की संख्या बढ़ाना चुनौतीपूर्ण है.
सहअस्तित्व है कुंजी

एक नज़रिया है कि बाघों के इलाक़ों से आबादी को अलग रखा जाए. एक दूसरा दृष्टिकोण है कि इंसान और वन्य जीव के बीच ज़मीन के साझे इस्तेमाल के माध्यम से सहअस्तित्व का समर्थन किया जाए.
आलोचकों का तर्क है कि ज़मीन के साझे इस्तेमाल से इंसान-जानवर के बीच संघर्ष बढ़ेगा जबकि आबादी को अलग करना अव्यावहारिक है.
अध्ययन दिखाता है कि भारत में दोनों प्रकार के नज़रिए के बीच सामंजस्य ने बाघों की संख्या में वृद्धि में मदद की है क्योंकि “बड़े मांसाहारी जानवरों के संरक्षण में दोनों की भूमिका है.”
हालांकि भारत में इंसानों और वन्य जीवों के बीच संघर्ष बढ़ा है और बाघों के हमले में लोग हताहत हुए हैं.
बाघों की बढ़ती संख्या के बीच इस मसले को कैसे सुलझाया जा सकता है?
झाला कहते हैं, “हर साल बाघों के हमले में 35 लोग, तेंदुए के हमले में 150 लोग और जंगली सुअरों के हमले में 150 लोग मारे जाते हैं. वहीं 50,000 लोग सांप के काटने से मारे जाते हैं. दूसरी तरफ़ कार दुर्घटना में हर साल डेढ़ लाख लोगों की जान जाती है.”
वो कहते हैं, “बात मौतों की संख्या की नहीं है. 200 साल पहले परभक्षियों से होने वाली इंसानी मौत मृत्यु दर का एक सामान्य हिस्सा हुआ करती थी. आज ये असामान्य बात है, इसीलिए ऐसी घटनाएं सुर्खियां बनाती हैं. असल में टाइगर रिज़र्वों में बाघ के हमले की तुलना में कार से मौत होने की आशंका अधिक होती है.”